रविवार, 13 अगस्त 2017

अय बच्चों दुबारा तुम, लेना कहीँ और जनम,



ग़ज़ल
रोते हैं बिलखते हैं, मछली से तड़पते हैं.
माँ-बाप से उनके जब, बच्चे जो बिछुड़ते हैं.

अय बच्चों दुबारा तुम, लेना कहीँ और जनम,
दौलत की यहां ख़ातिर सांसों को जकड़ते हैं.

संतान का ग़म क्या है, समझेंगे वही जिनकी,
हर याद पे जिनके दिल ,दिन रात सिकुड़ते हैं.

आज़ाद वतन की, ये बस इतनी कहानी है,
बाज़ों को खुली छूटें, चिड़िया को पकड़ते हैं.

बेशर्म हैं ये कितने,सांसों के ये सौदागर,
आनी थी शरम जिनको, वे और अकड़ते हैं.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.13-08-2017

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