ग़ज़ल
जिनमें
जान होती है, वो ही डूब जाते हैं.
मुर्दे
बैठे साहिल पे,शोर ही मचाते हैं.
खूँन
के निशां मेरे, धोयेंगे भला किस तरह,
और भी
नज़र आयें, जितना वो छिपाते हैं.
सच को
हमने कहने का, ये इनाम पाया है,
लाश पर
मेरी देखो, गिद्ध मुश्कराते हैं.
मौत की
करें परवाह, और लोग होंगे वे,
हम तो
जां हथेली रख, आइना दिखाते हैं.
क़त्ल
में मेरे शामिल, दोस्त भी हैं दुश्मन भी,
लाश पर
मिरी माला, मिल के सब चढ़ाते हैं.
अब
क़लम से इस दौर का हाल ना लिखा जाये,
आख़िरी
संदेशा हम, सबको छोड़ जाते हैं.
उपरोक्त नारी क़लमकार गौरी लंकेश की बुज़दिली पूर्वक की गयी नृशंस हत्या पर आहत
होते हुए पूरी संवेदना के साथ.
डॉ.
सुभाष भदौरिया ता. 10-09- 2017
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