ग़ज़ल
अच्छे दिनों का
हमको,कोई जवाब दे दो.
नज़रें तरस रही
हैं, कुछ तो हिसाब दे दो.
हम गदहे, कुत्ते,
बिल्ली, मुर्गें हैं आपके ही ,
हिस्से के कुछ
हमारे टुकड़े ही साब दे दो.
ये क्या सितम की
लाठी, गोली है उनकी किस्मत,
बेटी के हाथ
तुमने कहा था किताब दे दो.
सच को कहेंगे हम
तो, हो दौर झूट का वो,
चौराहे हमको चाहे
फाँसी जनाब दे दो.
कुछ
रौशनी हमारी कुटिया को छोड़ देते,
महलों को चाहे
सारा, तुम आफ़्ताब दे दो.
दौड़ेंगे दूर तक
वे लेंगे हिसाब अपना,
सोये हैं उनके
हाथों, तुम इंक़लाब दे दो.
डॉ. सुभाष
भदौरिया ता.17-09-2017 गुजरात.
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