ग़ज़ल
ये कैसा उजाला है ये कैसी दिवाली है.
सब्जी भी हुई गायब खाली मेरी थाली है.
हमने तो कटोरी में डुबकी को लगा देखा,
है दाल बहुत मंहगी और जेब भी खाली है.
लोगों की लुगाई ने घर ऐसे संभाला है,
शक्कर न मिली गुड़ की फिर चाय बनाली है.
अब ताज संभालों तुम, मुश्किल है बहुत मुश्किल,
सड़कों पे गरीबों की पगड़ी जो उछाली है.
दो चार ही दिन में तुम खेले हो करोड़ों में,
मेहनत से नहीं तुमने तिकड़म से कमाली है.
अब सर को पकड़ कर के रोये हो बहुत लोगो,
जब नीम हकीमों से तुम ने ही दवा ली है.
इस बार वो आयें तो छलने को हमें फिर से,
हमने तो बदलने की अब राय बना ली है.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.15-10-2017
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