शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

इस बार तो गुजराती, नहीं हाथ में आने के.

ग़ज़ल
अब भेष धरो लाखों, चुंगल में फँसाने के.
इस बार तो गुजराती, नहीं हाथ में आने के.

कभी गंगा बुलाती है, कभी बाबा बुलाते हैं,
आने को हैं दिन अब तो, धूनी के रमाने के.

झोले को सिला करके तैयार फकीरा हो ,
सेल्फी की जगह आये, दिन चिमटा बजाने के.

हमने तो तुम्हें साहब, पलकों पे बिठाया था,
हम काम फकत आये बस चूना लगाने के.

चिड़ियों को फिक्स दाना, बाजों को यूँ दुलराना,
हैं राज़ सभी जाने उस उस काले खजाने के.

आहें ये गरीबों की, खाली नहीं जाती हैं,
अब लेना मज़े तुम भी, दिल सब के दुखाने के.

अपनों ने ही अपनों की, हालत ये है कर डाली,
अब लोग यकीं करते, बाहर के घराने के.

डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.28-10-2017



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