ग़ज़ल
तेरी यादें कहां तक अब भला मुझको संभालेंगी.
मेरी तन्हाईयाँ लगता है मुझको मार डालेंगी.
तुम्हें शिकवे बहुत थे ये कि ज़्यादा बोलता हूँ मैं,
मेरी ख़ामोशियां ही अब मेरा ये दम निकालेंगी.
कहां किस्मत थी मैं सोऊं तेरे ज़ानूं पे सर रखकर,
समन्दर की ये ख़ाराशें मुझे ऐसे लुभालेंगी.
उठाये तेरी महफ़िल से कहां लोगों में जुर्रत थी,
पता क्या था तेरी गुस्ताख़ियां पगड़ी उछालेंगी.
सिर्फ़ ख़ाराश ही मुझमें नहीं रहते है गौहर भी,
हुआ रुख़सत जो दुनियां से तो फिर सदियां खंगालेंगी.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.10-01-2018
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