ग़ज़ल
जिनमें जान होती है वो ही डूब जाते हैं.
मुर्दे बैठे साहिल पे , बात ही बनाते हैं.
घंटों छांव में जिनकी ,रोज़ बात करते थे,
आज भी तुम्हें जानम पेड़ वो बुलाते हैं.
पास आ के ये जाना, वो महज़ छलावा है,
ढोल दूर के अक्सर, दूर से सुहाते हैं.
घर में रोशनी करना काम था जो दीपों का,
वो ही दीप मिलकर के घर मेरा जलाते हैं.
दिल की बात होटों पे,लाख हम ना आनें दें,
उतनी ही बयां होती जितना हम छुपाते हैं.
बूँद बूँद को देखो, खेत कैसे तरसे हैं,
बेवफ़ा ये बादल भी, छत पे बरस जाते हैं.
डॉ. सुभाष भदौरिया गुजरात ता.20-03-2018
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