ग़ज़ल
वो सुनामी
की तरह आये है.
दिल की
कश्ती ये डगमगाये है.
मर्हम-ए-दिल जिसे समझते थे,
वो ही दिल
पे छुरी चलाये है.
पहले देता है दावतें दिल को,
बाद में
फिर वो मुकर जाये है,.
मैं उजालों में उसको मांगे हूँ,
वो
अँधेरों में मुझको चाहे है.
मेरी वीरानियों को न समझे,
मेरी हालत
पे मुस्काराये है.
हम तरसते हैं बूँद की ख़ातिर,
वो समन्दर
पे बरस जाये है.
डॉ.सुभाष भदौरिया.गुजरात ता.19-03-2018
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